यह पुस्तक उन पाठकों को निराश कर सकती है जो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानते आये हैं। देश की सबसे बड़ी कंपनी के सबसे बड़े मीडिया शंहशाह बनने के दौर में यह बताने की जरूरत नहीं कि मीडिया की रगों में अब किसका खून दौड़ता है ?
Book : Mandi Mein Media
Writer : Vineet Kumar
Publisher : Vani Prakashan
Price : ` 595(HB) ISBN : 978-93-5072-216-9
Price : ` 275(PB) ISBN : 978-93-5072-234-3
Total Pages : 386
Size( Inches) : 4X7
Category : (Media/Criticism)
पुस्तक के संदर्भ में...
लोकतंत्र के इस नए बसंत में अन्ना,आमजन, अंबानी और अर्णब की आवाजें एक-दूसरे से गड्डमड्ड हो गई लगती हैं। 'मीडिया बिकाऊ है' के चौतरफा शोर के बीच और जस्टिस काटजू की खुलेआम आलोचना के बाद आत्म-नियंत्रण और नैतिकता की चादर छोटी पड़ने लगी है। ये नज़ारा कितना नया है, ये समझने के लिए दूरदर्शन व आकाशवाणी के सरकारी गिरेबान में झाँक लेना भी जरुरी लगता है। चित्रहार के गाने और फीचर फ़िल्में बैकडोर की लेन-देन से तय होती रहीं। स्क्रीन की पहचान भले ही 'रूकावट के लिए खेद है' से रही हो पर ऑफिस की मशहूर लाइन तो यही थी- आपका काम हो जायेगा बशर्ते....। सड़क पर रैलियों की भीड़ घटाने के लिए फ़िल्म 'बाबी' का ऐन वक्त पर चलाया जाना दूरदर्शन का खुला सच रहा है
। इन सबके बाबजूद पब्लिक ब्राडकास्टिंग आलोचना के दायरे में नहीं है तो इसके पीछे क्या करण हैं, यह किताब इस पर विस्तार से चर्चा करती है । इतिहास के छोटे-से सफर के बाद बाकी किताब वर्तमान की गहमा-गहमी और उठा-पटक पर केन्द्रित है।निजी मीडिया ने इस पब्लिक ब्राडकास्टिंग की बुनियाद को कैसे एक लान्च-पैड की तरह इस्तेमाल किया और खुद एक ब्रांड बन जाने के बाद इसकी जड़ें काटनी शुरू कर दीं, यह सब जानना अपने आप में दिलचस्प है। "हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं" जैसे दावे के साथ अपनी यात्रा शुरू करनेवाला निजी मीडिया आगे चलकर कॉर्पोरेट घरानों की गोद में यूँ गिरा कि नीरा राडिया जैसी लॉबीइस्ट की लताड़ ही उसका बिज़नेस पैटर्न बन गया। सवाल है कि किसी ज़माने में पत्रकारिता को मिशन मानने वाला पत्रकार आज कहाँ खड़ा है - मूल्यों के साथ या बैलेंस-शीट के पीछे ? जब मीडिया के बड़े-बड़े जुर्म एथिक्स के पर्दे से ढँक दिए जाते हों तब यह सवाल उठना लाजिमी भी है कि राडिया-मीडिया प्रकरण और उसकी परिणति के बाद लौटे 'सामान्य दिन' क्या वाकई सामान्य हैं, या हम मीडिया, सत्ता, और कॉर्पोरेट पूँजी की गाढ़ी जुगलबंदी के दौर में अनिवार्य तौर पर प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ केबल ऑपरेटर उतना ही बड़ा खलनायक है, जितना हम प्रायोजकों को मानते आये हैं।
लेखक के संदर्भ में....
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय से एफ एम चैनलों की भाषा पर एम. फिल.(2005) । मीडिया और हिन्दी पब्लिक स्फीयर के बदलते मिजाज़ पर पिछले पाँच वर्षों से लगातार टिप्पणी । वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से मनोरंजन प्रधान चैनलों की भाषा एवं सांस्कृतिक निर्मितियां पर रिसर्च।
मीडिया रिपोर्ट
वाणी प्रकाशन के युवा लेखक और दिल्ली विश्ववद्यालय में रिसर्च फैलो विनीत कुमार ने अपनी पुस्तक "मंडी में मीडिया' के सन्दर्भ में जनसत्ता
अख़बार (4 जून 2012 ) में उनका लेख 'कॉरपोरेट जगत का नया खेल' प्रकाशित
हुआ था ।
जिसे आप
इस लिंक के http://www.jansatta.com/index. php/component/content/article/ 20978-2012-06-04-05-13-48
माध्यम से पढ़ सकते हैं।
तहलका (हिन्दी) पत्रिका 16 जून के अंक में प्रकाशित समीक्षा https://www.facebook. com/photo.php?fbid= 4251498808836&set=a. 4251498648832.2173157. 1326722260&type=1&theater
तहलका (हिन्दी) पत्रिका 16 जून के अंक में प्रकाशित समीक्षा https://www.facebook.
हिन्दू (अखबार) 20 सितम्बर 2012 का अंक METRO PLUS , PAGE NO -3 में प्रकाशित लेखक के विचार आप से http://www.thehindu.com